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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

थोड़ा-बहुत


किताबें जितनी ख़रीदी जाती हैं, उतनी पढ़ी नहीं जाती। फुर्सत नहीं मिलती, ऐसा नहीं है, समय बस, बहता चला जाता है।

इसके बावजूद कुछेक किताबें, चुनिंदा किताबें अचानक ही पढ़ डालती हूँ। यह मैं नहीं कहूँगी कि उन किताबों को पढ़कर उसे मन में बसाए रखती हूँ। पिछले दिनों मैंने 'गैलिलिओ की बेटी' पढ़ी। अमेरिकी लेखक, दाभा सवेल ने इस किताब को लिखने में कम मेहनत नहीं की। फ्लोरेंस के जादूघर से गैलिलिओ की नाजायज बेटी, वर्जिनिया का अपने पिता को लिखे गए एक सौ चौबीस ख़तों का उन्होंने इटालियन से अनुवाद किया है। अपनी बेटी को लिखे गए गैलिलिओ के ख़त इकट्ठे करना संभव नहीं हुआ। वह सब तो जाने कभी आग में जलकर खाक हो चुके हैं। तमाम ख़त उसी कॉन्वेंट में ही जला डाले गए, जहाँ वर्जिनिया नन थीं। सन् 1600 में उनका जन्म! जिस साल जियोर्दानो ब्रूनो को जलाकर मार डाला गया। बेटी की उम्र, जब कुल बारह वर्ष थी, गैलिलिओ ने उसे दक्षिणी फ्लोरेंस के एक कॉन्वेंट में भेज दिया था। वहीं वर्जिनिया ने अपना नाम बदलकर, मारिया सेलेस्त रख लिया। जिंदगी भर इसी नाम से जानी जाती रही और गैलिलिओ जिंदगी भर उसे ख़त लिखते रहे और मारिया भी अपने 'डियर लॉर्ड फादर' को ख़त लिखती रहीं। गैलिलिओ के बारे में सभी लोग जानते हैं-गैलिलिओ ने पिसा के झुके हुए टावर से कमान का बॉल, नीचे फेंक दिया था; लोग जानते हैं कि गैलिलिओ ने भी समूची दुनिया के विश्वास की बुनियाद हिला दी थी। जब समूची दुनिया इस पृथ्वी को समूचे ब्रह्मांड का केंद्र मानती थी, उन्होंने ऐलान किया, पृथ्वी ही सूरज के चारों तरफ घूम रही है। लोगों को यह भी पता है कि इस वजह से उन्हें सज़ा झेलनी पड़ी थी। लेकिन किसी को क्या इस बात की जानकारी थी कि गैलिलिओ की एक नाजायज बेटी थी, जिसे वे बेहद प्यार करते थे, जिसे ख़त लिखते हुए, वे पन्ने पर पन्ने रंगते रहे। उन दिनों भी, जब वे घर में कैद थे। वे सब खत कैसे हो सकते थे? एक शख्स ईश्वर में विश्वासी, दूसरा ईश्वर की हकीकत एकदम से उड़ा देनेवाला, वैज्ञानिक! उस ज़माने में इटली में, उस सतरहवीं शती में, गिरजा की ही काफी तूती बोलती थी। कॉन्वेंट में रहनेवाली अपने बेटी से मिलने का, खास कभी संयोग नहीं बना। हालाँकि जब तक वे जिंदा रहे। बेटी को ख़त लिखते रहे। उन ख़तों में विज्ञान, विश्वास और प्यार के किस्से होते थे।

खुद गैलिलिओ का जन्म, पिसा में 15 फरवरी, 1564 में हुआ था। उनके पिता विन्सेनजिओ थे, संगीत शिक्षक! उन्होंने अपने बेटे को ऑर्गन बजाना और गाना सिखाया। दस साल की उम्र में गैलिलिओ पिसा से फ्लोरेंस आए। वहाँ तीन साल तक उन्होंने स्कूल की पढ़ाई की। उसके बाद वे ग्रीक और लैटिन भाषा सीखने किसी मठ में जा पहुंचे। लेकिन उनके हिसावी पिता को लगा, बेटियों के ब्याह के लिए दहेज देने में ही काफी सारे रुपए खर्च हो जाएँगे! बेटियाँ खर्च की चीज़ हैं और बेटा अगर संन्यासी बना बैठा रहे, तो गृहस्थी कैसे चलेगी? विन्सेनजिओ ने बेटे को धर-पकड़कर पिसा विश्वविद्यालय में दाखिल करा दिया। गैलिलिओ ने वहाँ से मैट्रिक पास किया। उसके बाद दो साल डॉक्टरी पढ़ने के बाद, डिग्री लिए विना ही वे अपने पिता के घर फ्लोरेंस लौट आए। गैलिलिओ का मन डॉक्टरी में नहीं टिका। उनका झुकाव, गणित और पदार्थ विज्ञान में था। उस ज़माने में डॉक्टरी पढ़ने के लिए थोड़ा-बहुत गणित भी सीखना पड़ता था। गणित के मामले में फ्लोरेंस में इधर-उधर जितनी भी विद्या उपलब्ध थी, वह सब झाड़कर, उन्होंने पिसा विश्वविद्यालय में गणित-टीचर के पद के लिए आवेदन किया और नौकरी मिल भी गई। उन्हीं दिनों उन्होंने पिसा टावर से कमान की बॉल नीचे फेंका। अरस्तू ने कहा था कि अगर सौ हाथ ऊपर से सौ पाउंड की बॉल नीचे फेंकी जाए और साथ ही एक हाथ ऊपर से कुल एक पाउंड वजन की बॉल भी नीचे फेंकी जाए, तो सौ हाथ ऊपर से फेंकी गई बॉल ही पहले धरती चूमेगी। गैलिलिओ ने कहा कि दोनों बॉल एक साथ धरती चूमेंगी, आगे-पीछे नहीं। इस बात को लेकर पिसा विश्वविद्यालय में गैलिलिओ को अपनी जनप्रियता कम नहीं खोना पड़ी। गैलिलिओ ने अफसोस जताते हुए कहा, 'मेरी गलती पर तुम लोग नाराज क्यों हो गए? अरस्तू की गलती पर तो चूँ तक नहीं किया-'

विसेनजिओ, गैलिलिओ की मौत के बाद, घर-द्वार गृहस्थी की जिम्मेदारी, गैलिलिओ के कंधे पर आ पड़ी! उन दिनों उनकी कमाई-धमाई ख़ासी अच्छी थी। ऐसा तो नहीं कहा जा सकता था। उन साठ रुपए में ही बहन का ब्याह। छोटे भाई, माइकेलएंजोलो की पढ़ाई-लिखाई का खर्च, माँ का मासिक हाथ-खर्च, सारा कुछ निपटाना होता था। सन् 1592 में गैलिलिओ ने पिसा छोड़ दिया और पादोवा विश्वविद्यालय में चले आए। वहाँ उन्होंने अठारह साल तक अध्यापन किया। उन्होंने वाद में कहा भी था कि जिंदगी का सबसे सुनहरा समय, उन्होंने वहीं बिताया था। तनखाह भी अच्छी मिलती थी। साल में तीन सौ रुपए से लेकर चार सौ अस्सी रुपए तक! पादोवा में ही उनकी जान-पहचान मरीना गमवार से हुई। वे अक्सर हर रात मरीना के यहाँ गुजारते थे। नहीं, उन्होंने मरीना को कभी, किसी दिन अपने घर में नहीं बसाया। विवाह तो खैर, किया ही नहीं। हालाँकि मरीना ने गैलिलिओ के तीन संतानों को जन्म दिया-वर्जिनिया, लिविया और बेटा, गैलिलिओ के पिता के नाम पर विन्सेनजिओ! कागज-पत्तर में संतान के पिता का नाम भले न हो। मगर गैलिलिओ ने यह कबूल किया कि वे ही उन बच्चों के पिता हैं। पादोवा विश्वविद्यालय में गणित-टीचरी करते-करते ही, मेदिचि परिवार में उनके लिए एक अदद नौकरी जुट गई! राजकुमार कसीमो को गणित सिखाने की नौकरी! गणित सिखाने के साथ-साथ वे राजकुमार को आकाश के ग्रह-नक्षत्रों की पहचान भी बताते रहे। कसीमो पर कब, कौन-से ग्रह का असर पड़ रहा है इसकी खोज-वीन में वे काफी सारा वक्त खर्च करने लगे। ऐसे विद्याधर को महज़ राजकुमार की कोठी में भला कौन विठाए रख सकता था? नौकरी में उनकी पदोन्नति हुई। गैलिलिओ समूचे मेदिचि खानदान के अंक विशेषज्ञ बन बैठे। उन्हीं दिनों उन्होंने फौजियों के लिए दिशा-निर्देश यंत्र बनाया। इसके बाद ही उन्होंने टेलीस्कोप-निर्माण में हाथ लगाया। बहुत-से लोगों का ख्याल है कि टेलीस्कोप का आविष्कार किया था। लेकिन ऐसी बात नहीं है। टेलीस्कोप तो हॉलैंड में बनाया गया था, गैलिलिओ ने उसे और उन्नत किया था। अरस्तू ने ही यह भी कहा था कि गति के बारे में अज्ञ होने का मतलब है, प्रकृति के बारे में अज्ञ होना! गैलिलिओ इस अज्ञता से मुक्त होने के लिए बेतरह व्यग्र हो उठे। कड़कड़ाती ठंड की रातों में टेलीस्कोप पर नज़र जमाए बैठे रहते थे; मारे ठंड के उनके हाथ जम जाते थे, कुहासे से टेलीस्कोप का काँच धुंधला हो आता फिर भी उन्हें झुंड भर नक्षत्रों के पीछे स्थिर जगमगाते हुए, जुपिटर, वीनस, मार्स, मर्करी और सैटर्न साफ़ नजर आ गया। उनमें हरकत करती हुई गति भी साफ़ नज़र आ गई। सिर्फ इतना ही नहीं, गैलिलिओ ने यह भी कहा कि जुपिटर को घेरे हुए चार-चार चंद्रमा, उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे हैं। खैर, अज्ञता तो कट गई, लेकिन गैलिलिओ कदम-क़दम पर अरस्तू को काटने लगे। यहाँ तक कि रातोंरात दो वर्ग तैयार हो गए। एक वर्ग गैलिलिओ के पक्ष में, दसरा अरस्त के पक्ष में! उस साल, सन 1610 में, गैलिलिओ की पहली किताब, 'नक्षत्रवार्ता' प्रकाशित हुई, चारों तरफ भयंकर हड़कंप मच गई। हफ्ते भर के अंदर-अंदर उस किताब की सारी प्रतियाँ बिक गईं। यह ख़बर दुनिया भर में फैल गई। अंग्रेज राजदूत, सर हेनरी वेटन ने वेनिस से इंगलैंड के राजा, जेम्स को ज़रूरी ख़त लिखा, 'पादोवा के किसी गणित-टीचर ने दावा किया है कि जुपिटर के इर्द-गिर्द चार-चार चाँद घूमते हैं, आज तक यह आविष्कार तो किसी ने भी नहीं किया। उन्होंने कुछेक स्थिर तारे भी देखे हैं! हैरत है! यह सब पहले तो किसी ने नहीं देखा। उन्होंने वहाँ के छायापथ की असली वजह का भी बयान किया। यह शख़्स या तो बेहद मशहूर या फिर जघन्य होनेवाला है। यह शख़्स जो कह रहा है, वह पागल का प्रलाप है या इसमें कोई सच्चाई है, इसकी जाँच-परख ज़रूरी है।

उसका टेलीस्कोप यंत्र, बाद वाले जहाज से भेज रहा हूँ।'

गैलिलिओ ऊँचाई की तरफ सरपट बढ़ते जा रहे थे। उन्होंने राजकुमार कसीमो को अपने हाथों तैयार किया गया एक टेलीस्कोप और नक्षत्रवार्ता की प्रति भेजी और जवाब में उनके लिए सिर्फ सूखा-सा धन्यवाद भर नहीं जुटा, बल्कि पिसा विश्वविद्यालय में प्रधान गणितज्ञ का पद और ग्रैंड ड्यूक का व्यक्तिगत दार्शनिक और गणितज्ञ होने का भी मौका मिला। गैलिलिओ का आकाश नक्षत्रों से जगमगा उठा। लेकिन इधर सिर्फ मारिया सेलेस्त ही नहीं, गैलिलिओ की और एक बेटी, लिविया भी कॉन्वेंट के अँधेरे में पड़ी रही। नाजायज होने की वजह से उसके विवाह का भी कोई उपाय नहीं था। दोनों कमसिन बेटियों को सोलह वर्ष में कदम रखने के पहले ही, अपने सिर के बाल कटाने पड़े। सिर पर कपड़ा बाँधना पड़ा और बदन पर ढीलमढाल अलखल्ला लबादा चढ़ाना पड़ा। कॉन्वेंट के प्रधान ने, चूँकि इसमें गैलिलिओ की सहमति नहीं थी, ख़त लिखकर, पहले से ही यह समझाना बुझाना शुरू कर दिया कि ईश्वर की सेवा के काम में उतरना कोई बुरी बात नहीं है, बल्कि भला काम है! गैलिलिओ का मन इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं था।

गैलिलिओ ने एक और किताब लिख डाली-जल के अंदर शरीर! यह किताब उन्होंने इतालवी भाषा में लिखी, क्योंकि वे प्रचुर पाठक पाना चाहते थे। गैलिलिओ एक के बाद एक किताबें लिखते रहे और अरस्तू तथा टॉलेमी को चुटकियों में उड़ाने की कोशिश करते रहे, लेकिन कोई एक धर्मगुरु कोपरनिकस के गुण गाता रहा। यह कोपरनिकस कौन था? निकोलस कोपरनिकस इटली में कुछ वर्षों डॉक्टरी, ज्योतिर्विद्या और गणित विद्या सीखने के बाद, तीस साल की उम्र में, अपने देश पोलैंड लौट गए। कोपरनिकस के वापस लौटने के बाद, उनके एक चाचा विशेप ने उन्हें फ्रमवर्क कैथेड्रल का प्रधान बना दिया। कोपरनिकस उसी फ्रमवर्क में बैठे-बैठे, खुली आँखों से आसमान निहारते रहे और थोड़ा-बहुत अध्ययन करके और चिंतन मनन करके, उन्होंने लैटिन भाषा में एक किताब लिख डाली। सन् 1543 में वह किताब छपा भी डाली। यह किताब लिखने के कई दशक बाद, जब वे सत्तर साल के हो चुके थे और वे बिस्तर से लग चुके थे। (पता नहीं क्यों तो दुनिया भर में हलचल मचा देने जैसा कछ लिखकर. छपाने में इतना वक्त क्यों लेते थे। 'द ऑरिजिन ऑफ स्पेसिस बाइ मीन्स ऑफ नेचुरल सिलेक्शन' नामक किताब लिखने के बीस साल बाद, डार्विन ने उसे छपने दिया था)। 'दि रिवोल्यूशनिबुस' चूँकि लैटिन में लिखा गया था। कुल मुट्ठी भर लोग ही यह भाषा जानते थे। लेकिन जब वह किताब प्रकाशित हुई, तो चारों तरफ हड़कम्प मच गई, ऐसा भी नहीं था। यह किताब पोप को उत्सर्ग किया गया था। पोप पॉल तृतीय को जिन्होंने धर्मच्युत करने के लिए न्याय-प्रणाली की शुरुआत की थी (जिस न्याय-प्रणाली में आखिरकार गैलिलिओ को फँसना ही पड़ा और इसी किताब के समर्थन के लिए) उस किताब का विषय, टॉलेमी की राय के बिल्कुल विपरीत था। अलेक्जेन्द्रिया के वैज्ञानिक, टॉलेमी ने दावा किया कि पृथ्वी केन्द्र में है। और चाँद-सूरज-ग्रह, पृथ्वी को घेरे हुए हैं। कोपरनिकस का कहना था कि पथ्वी केंद्र में नहीं है, केंद्र में सर्य है। वह किताब लिखने के वाद गैलिलिओ ने टॉलेमी का पथ्वी केंद्रित ब्रह्मांड के सिद्धांत को उडाकर. कोपरनिकस की राय को ही स्वीकार कर लिया। सूर्य के चेहरे पर कुछेक दाग देखकर गैलिलिओ सोचने बैठ गए, मूल हिसाब लगाने में जुट गए कि इस दाग की क्या वजह हो सकती है। इस दाग को लेकर उनका जर्मन ज्योतिर्विद वेल्स से काफी पत्राचार भी हुआ। गैलिलिओ ने अपनी राय जाहिर की कि मुमकिन है यह दाग, नक्षत्रों की छाया हो, जो सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगा रहे हैं! यह भी हो सकता है कि सूरज अपनी ही धुरी पर घूम रहा है! पूरे एक साल में वह पूरी धुरी का एक चक्कर पूरा करता है। इसलिए हर साल ये दाग बदलते रहते हैं; कुछेक दागों के आकार बदलते रहते हैं। कुछ गायब भी हो जाते हैं। गैलिलिओ पूरे साल भर तक टेलीस्कोप में आँखें गड़ाए, सूरज को निहारते रहे। और बेस्लर को ख़त लिख-लिखकर भेजते रहे। यही ख़त, बाद में किताब के रूप में प्रकाशित हुए। इस किताब के प्रकाशन पर लोग-वाग दुगना भड़क गए। चूँकि कोपरनिकस अब जिंदा नहीं थे, इसलिए सूर्य केंद्रित ब्रह्मांड की सारी जिम्मेदारी अकेले गैलिलिओ पर ही आ पड़ी। सन् 1612 में फ्लोरेंस गिरजाघर के पादरी ने यह ऐलान कर दिया कि कोपरनिकस का वक्तव्य, पवित्र बाइबिल ग्रंथ के बिल्कुल विपरीत है।

उस ज़माने का ज्योतिर्विद और दार्शनिक वर्ग गैलिलिओ के खिलाफ इस कदर मुखर हो उठा था कि गैलिलिओ के प्रिय छात्र, वेनेदेत्तो कासतेली ने गैलिलिओ के पक्ष में जनमत गढ़ने की कोशिश की। अपने समर्थन में लिखे हुए गैलिलिओ के ख़तों को भी उसने प्रकाशित कर दिया और लोगों में बाँट भी दिया। लेकिन पिसा विश्वविद्यालय में गणितज्ञ के तौर पर नियक्ति पाते ही कासतेली मुसीबत में पड़ गए। विश्वविद्यालय के संचालक ने साफ हिदायत दे डाली 'पृथ्वी घूमती है' ऐसा अद्भुत पाठ, किसी शर्त पर भी छात्रों को न पढ़ाया जाए। सिर्फ यही नहीं, बहुत जल्दी ही कासतेली को पेदीची परिवार में हज़ारहा सवालों का सामना करना पड़ा। ग्रह-नक्षत्रों के बारे में सबसे ज़्यादा दिलचस्पी, राजकुमार कसीमो की माँ, ग्रैंड डचेज़ क्रिश्चिना को थी। कासतेली जितना ही केंद्रित ब्रह्मांड के बारे में खुलासा कर रहे थे, क्रिश्चिना को उतना ही झुंझलाहट हो रही थी। उन्होंने बाइबिल खोलकर, जोशुआ की कथा में से पढ़कर सुनाया-'पृथ्वी को स्थिर रखा गया है, हमेशा के लिए स्थिर! यह किसी हालत में हिले-डुले नहीं। फिर?'

कासतेली अजब फज़ीहत में पड़ गए। उन्होंने गैलिलिओ को ख़त लिखा। वह खत पाकर, गैलिलिओ ने कासतेली और क्रिश्चिना को लंबा खत लिखा। गैलिलिओ ने व्याख्या दी कि बाइबिल के साथ विज्ञान का कोई विरोध नहीं है। प्रकृति के सत्य को जानने का मतलब है, बाइविल में जो सत्य है, उनका आविष्कार करना। गैलिलिओ ने यह दोप लगाया कि जो लोग बाइविल का अक्षरशः अनुवाद करते हैं, गलत व्याख्या करते हैं, सारा कसूर उनका है। पवित्र ग्रंथ और प्रकृति, दोनों ही ईश्वर की सृष्टि हैं। इसलिए इन दोनों में कोई विरोध हो ही नहीं सकता। जोशुआ की किताव से एक और उदाहरण देते हुए, गैलिलिओ ने कहा कि यह भी तो लिखा है कि जोशुआ ने अपनी प्रार्थना के अंत में कहा कि हे सूर्य, तुम स्थिर रहना? हे चाँद तुम भी स्थिर रहना, जव तक जाति अपने दुश्मनों को निश्चिह्न न कर दे आसमान के बीचोंबीच, सूरज थिर हो गया हो, ऐसा दिन, पहले कभी नहीं आया।

गैलिलिओ ने कहा, 'जोशुआ ने ठीक ही कहा है। आसमान के बीच में सूरज थिर है। ठीक उसी तरह, जैसे कोपरनिकस ने कहा था और थिर सूर्य के चारों तरफ पृथ्वी और अन्यान्य ग्रह घूम रहे हैं।'

लेकिन, गैलिलिओ के तर्क कौन सुनता?

गैलिलिओ ने दुबारा कहा, 'ईश्वर ने हमें बुद्धि दी है। उस बुद्धि को काम में न लगाकर हम क्या पवित्र धर्मग्रंथ थामे बैठे रहें, जहाँ किसी भी ग्रह-नक्षत्र का मामूली-सा भी उल्लेख नहीं है। वैसे लोगों को ज्योतिर्विद्या में पंडित बनाना, बाइबिल का काम भी नहीं है।'

गिरजाघर के लोग भी, गैलिलिओ के वक्तव्य को अच्छा कहकर, चाहे जितना भी उड़ा दें। मगर उन्हें उसमें युक्ति की तलाश थी। क्रिश्चिना को लिखे गए ख़त में गैलिलिओ ने यह भी बताया कि कोपरनिकस की किताब पर पाबंदी लगाने का मतलब है बाइबिल के सौ पन्नों पर पाबंदी लगाना, जहाँ ईश्वर की महानुभावता की चर्चा की गई है। जहाँ उनकी असीम क्षमता का उल्लेख किया गया है। अगर हम कैथोलिक के स्वार्थ के पक्ष में भी सोचें, तो महाजगत के इस सत्य को, दूसरे-दूसरे लोग, ये प्रोटेस्टेंट ससुरे, कभी न कभी यह ज़रूर आविष्कार करेंगे। लेकिन उन लोगों से पहले ही इन कैथोलिक लोगों को वाहवाही बटोरने दें।

गैलिलिओ की मीठी-मीठी बातों से लोगों का मन नहीं पसीजा। प्रचंड शोर मचा-गैलिलिओ धर्मविरोधी है। उस वक्त गैलिलिओ प्रमाण खोजते फिरे, सूर्य केंद्रित ब्रह्मांड का प्रमाण! अकेला टेलीस्कोप प्रमाण जुटाने के लिए काफी था। आकाश को छोड़कर, गैलिलिओ ने पृथ्वी की तरफ निगाह डाली उन्होंने समुद्र के जल का उल्लेख किया। ज्वार-भाटे की मिसाल देते हुए, उन्होंने कहा, 'पृथ्वी अगर स्थिर होती, तो पानी भी स्थिर रहता।'

वैसे गैलिलिओ की यह धारणा गलत थी। उन्हें ज्वार-भाटे का कारण तब भी यह पता नहीं था। उस वक्त तक उन्होंने चाँद और जल के आकर्षण को मिलाकर नहीं देखा था। उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि पृथ्वी थिर होने के बावजूद, चाँद की वजह से पानी में लहरें उठेगी ही, ज्वार-भाटा आएगा ही!

बाद में, जर्मन वैज्ञानिक केप्लर ने चाँद के आकर्षण का खुलासा किया। गैलिलिओ की रक्षा करना, उनके समर्थकों के पक्ष में भी असंभव था। पोप ने खुद ही इस मामले में अपने को लपेट लिया। वहाँ गैलिलिओ का कोई तर्क नहीं टिका, जहाँ बाइबिल में यह साफ-साफ लिखा हुआ है कि सूरज उगता है, अस्त होता है और सूर्य वहीं लौट आता है, जहाँ से वह उगा था। पोप की अनुमति लेकर, कार्डिनल ने जानकारी दी कि ईश्वर के सजाए हुए इस महाजगत को सुधारने की जिम्मेदारी किसी को भी नहीं दी गई। गॉड ने पृथ्वी को जैसा थिर रखा है। पथ्वी वैसी ही थिर रहेगी। सूर्य, चंद्र, ग्रह-नक्षत्र को वे पृथ्वी के चारों तरफ, जैसे घुमा रहे हैं, ये वैसे ही घूमते रहेंगे।

सन् 1616 का जिक्र है। उस वक्त तक पोप को गैलिलिओ की जवाबदेही अभी ख़त्म नहीं हुई थी। उनके मत के पक्ष में अब कोई भी सबूत मंजूर नहीं किया जाएगा, यह सूचित कर दिया गया। यह भी घोषणा कर दी गई कि कोपरनिकस की राय झूठी है और बाइबिल-विरोधी है। यह कहा गया कि कोपरनिकस की किताब तब तक निषिद्ध रहेगी, जब तक इसे संशोधित नहीं किया जाता। गैलिलिओ रोम से फ्लोरेंस लौट गए। उस वक्त वे बीमार थे। वे मलेरिया या गठिया, जाने कौन से रोग के शिकार हो गए थे। ऐसी हालत में भी उन्होंने किताब लिखना शुरू किया! ज्वार-भाटा पर उन्होंने एक किताब लिख डाली। उसके बाद, उनकी वह मशहूर किताब, सन् 1632 में प्रकाशित हुई–'डायलॉग ऑन द टू चीफ वर्ल्ड सिस्टम, टॅलेपिक ऐंड कोपरनिकस!' उन्हीं दिनों प्लेग महामारी जर्मनी से उत्तर इटली तक आ पहुंची थी। फ्लोरेंस श्मशान होता जा रहा था। इधर गैलिलिओ, किताब-प्रकाशन के दौरान, रोम तक दौड़-धूप कर रहे थे।

प्रकाशन के फौरन बाद ही 'डायलॉग' निषिद्ध हो गया। गैलिलिओ को धर्म के ठेकेदारों की विचार सभा में खड़ा होना पड़ा। सबसे ज्यादा परेशान थी-मारिया सेलेस्त! पिता के लिए वह प्रार्थना करती रही: खत पर खत लिखती रही: चोरी-छिपे वह खत भेजती भी रही; उन्हें भी ख़त मिलते रहे; निषिद्ध ख़त! फैसला सुनाया गया, गैलिलिओ को नज़रबंद कर दिया गया। अब उनके लिए अपनी प्यारी बेटी को भर नज़र देखने का भी उपाय नहीं रहा। अचानक बेटी बीमार हुई और उसने दम तोड़ दिया। अकेले गैलिलियो और अकेले हो आए। बेटी की मौत के बाद, उन्होंने पैरिस में बसे, अपने किसी मित्र को लिखा, मेरी अनुपस्थिति ने ही मारिया को बीमार कर दिया। उसने अपनी सेहत का बिल्कुल ख्याल नहीं किया। उसका अभाव मेरी बर्दाश्त-बाहर है! मेरी वह बेटी बहुत असाधारण थी, ‘ए वुमेन ऑफ एक्जिक्यूट माइंड, सिंगुलर गुड्नेस ऐंड मोस्ट टेंडरली अटैच्ड टु मी।'

एकाकीपन, अभाव, बीमारी भोगते हुए, गैलिलिओ के भी जाने का वक्त आया। गैलिलिओ आइंस्टाइन के शब्दों में 'आधुनिक पदार्थ विज्ञान के जन्मदाता' चले गए।

जिस साल वे गुज़रे, उसी साल एक और वैज्ञानिक न्यूटन ने जन्म लिया। नहीं, न्यूटन की कहानी उस किताब में नहीं है। विज्ञान और वैज्ञानिकों पर लिखी हुई वह किताब, बाकी सब किताबों जैसी नहीं है। इस किताब में वैज्ञानिक गैलिलिओ से ज्यादा इंसान गैलिलिओ की कहानी ज़्यादा है। इससे भी ज़्यादा गैलिलिओ की बेटी की कहानी है। इतिहास में जिसका नाम-गंध तक नहीं है। हालाँकि गैलिलिओ के व्यक्तिगत जीवन में एक इंसान की प्रबल उपस्थिति है, वही नेपथ्य के इंसान की उपस्थिति! मारिया सेलेस्त का विश्वास था कि नक्षत्रों के उस पार, उनका अपने पिता से मिलन होगा। गैलिलिओ को भी क्या यह विश्वास था? उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे ईश्वर में विश्वास करते हैं। खैर विश्वास रहा भी हो, तो उन्होंने ईश्वर की गर्दन भी मरोड़ दी। उसके दो सौ साल बाद, चार्ल्स डार्विन ने उसी ईश्वर के सीने पर जबर्दस्त कोप बिठा दिया।

डार्विन का जिक्र छेड़ते ही, आजकल रिचार्ड डकिन्स का जिक्र अपने आप चला आता है। उन्होंने अपने को सिर्फ डार्विनवादी कहा। उन्होंने नई किताब लिखी-अनवीमिंग द रेनबो! किताब का नाम, कीट्स की कविता से लिया गया। सूर्य की रश्मियाँ, वर्षा की बूंदों पर पड़कर, उन्हें सतरंगी बना रही हैं। इस बात से कीट्स इस क़दर हताश हुए थे कि उन्होंने न्यूटन पर इल्ज़ाम लगाते हुए एक कविता लिखी-न्यूटन ने सतरंगी धनुष का रंग हथिया लिया। न्यूटन ने इंद्रधनुष की खूबसूरती और रहस्य के बारह बजा दिए। कीट्स की ‘लामिया' कविता कुछ यूँ थी-

देयर वाज़ एन ऑफुल रेनबो, वंस इन हेवेन,
वी नो हर टैक्स्च
शी इज़ गिवन।
इन डल कैटालॅग ऑफ कॉमन थिंग्स!
फिलॉजोफी विल किलप ऐन ऐंजेल्स विंग्स!
कॅन्कोएर ऑल मिस्ट्रीज बाइ रूल ऐंड लाइन।
एम्प्टी द हॉन्टेड एअर,
ऐंड नौमड माइन।
आइ वीभ ए रेनबो...!

रिचार्ड डकिन्स ने कीट्स की कविता से नाम ज़रूर लिया है। लेकिन उसे मूर्ख कहकर गाली भी दी है। यीट्स और ब्लेक भी कीट्स की तरह मूर्ख ही थे। इन लोगों ने भी डकिन्स से गाली खाई है। डकिन्स ने बार-बार यह बात दुहराई है कि विज्ञान कभी. किसी का सौंदर्य नष्ट नहीं करता। रहस्य-मोचन होने पर कविता गम नहीं हो जाती। बल्कि और आकर्षक हो जाती है. और खबसरत हो जाती है। इंद्रधनष का वैज्ञानिक, सच्चे इंद्रधनुष पर लिखी गई कविता से कम सुंदर नहीं होता। विज्ञान के सौंदर्य से कवि अनुप्राणित हो, यही तो होना चाहिए। डकिंस भी यही सोचते हैं। आजकल विज्ञान-मूर्ख, बड़े साहित्यकार हो उठे हैं, विज्ञान के बारे में आँय-वाँय वका जा रहा है, प्रचार-माध्यमों में अज्ञ लोगों की भीड़ लगी है। चारों तरफ अज्ञता फैलाने का ही विशुद्ध तरीका जारी है, यह सब राग-रंग डकिन्स को बेतरह क्षुब्ध करता होगा।

डकिन्स के पिछली किताबों-सेलफिश जिन, द ब्लाइंड वाचमेकर, द एक्टेंडेड फेनोटाइप, क्लाइम्बिंग माउंट प्रोबालेर वगैरह के मुकाबले यह किताब ज़्यादा पठनीय है। इसमें उपमा और रूपक इतनी खूबसूरती से इस्तेमाल किया गया है कि लगता ही नहीं कि यह विज्ञान की किताब है। ऐसा लगता है, मानो यह लंबी कविता है! सिर्फ कविता ही नहीं, इसे पढ़ते हुए लगता है, मानों रूसी मात्रिअस्का खुलता जा रहा है! गुड़िया के अंदर गुड़िया, उसके भी अंदर गुड़िया, उसके भी अंदर और एक गुड़िया, उसके भी अंदर और एक...। डकिन्स डीएनए के रहस्य और सौंदर्य का जितना आकर्षक बयान कर सकते हैं, कोई भी दूसरा विज्ञान लेखक ऐसा नहीं कर सकता। डकिन्स विज्ञान में कविता और सौंदर्य देखते हैं। यही वे सबको दिखाना भी चाहते हैं, वह भी सभी आम लोगों को सिर्फ मुट्ठी भर विज्ञान-पाठकों को नहीं! जीवन क्या है? जीवन क्यों है? जीवन कहाँ से आया है? यहाँ तक कि फूल क्यों है? फूलों का रंग क्यों है? सिंह हिंस्र क्यों है? हिरण हिंस्र क्यों नहीं है? अंधी मधुमक्खी रंगीन फूलों की तरफ क्यों जाती है? इस किस्म के हज़ारों रहस्यों को ज़रा-ज़रा करके उन्मुक्त कर पाना ही कविता है और उसी कविता के अंदर जीते रहने में ही, जीवन की सार्थकता है। ज्यां पॉल सात्र ने कहा था, 'जीवन अर्थहीन है, कुछ-कुछ करके, जीवन को अर्थमय करना होता है।' डकिन्स की राय में, जान-समझकर कुछ करना होता है।

एक और किताब का जिक्र करना चाहूँगी। यह काव्य-विज्ञान की किताव नहीं, उपन्यास है। दक्षिण अफ्रीका के लेखक, जे. एम. कोएत्ज़ी का उपन्यास-डिस्ग्रेस! पिछले साल इस किताब पर उन्हें बुकर पुरस्कार मिला है। इससे पहले, सन् '83 में उन्हें 'लाइफ ऐंड टाइम्स ऑफ माइकेल' के लिए पुरस्कार मिला था। 'डिस्ग्रेस' पढ़ते हुए, शुरू-शुरू में लगता है कि नोवोकब की 'लोलिता' पढ़ रही हूँ। केपटाउन के एक विश्वविद्यालय में वे रूमानी कविता पढ़ाते हैं; अकेले रहते हैं! फुर्सत के पलों में वेश्या को आमंत्रित करके तरुणाई का स्वाद लेते हैं। अधेड़ और दो-दो बार तलाकशुदा, डेविड लूरी का जीवन इसी ढर्रे पर चलता रहता है। कहानी जहाँ से शुरू होती है, वहाँ वे किसी किशोरी छात्रा को अपने घर बुलाकर, छल-बल कौशल से शारीरिक संगम निपटाते हैं। लेकिन शरीर की भूख नहीं मिटती, बल्कि और बढ़ जाती है। उस किशोरी को पाने के लिए, लूरी दिनोंदिन और ज़्यादा हम्बर्ट-हम्बर्ट हो उठते हैं। उसके बाद, कहानी किसी और तरफ मुड़ जाती है, असम्मान की तरफ! छात्रा के साथ शिक्षक के यौन-संपर्क को लेकर विश्वविद्यालय में जाँच-पड़ताल शुरू हो जाती है। लेकिन लूरी माफी माँगने के बजाय किसी गाँव की तरफ निकल जाते हैं और एक लड़की के साथ रहना शुरू करते हैं। वहाँ उस लड़की के प्रति होते हुए असम्मान पर उनकी नज़र पड़ती है। उन्होंने देखा कि काले लोग बार-बार उसके घर में लूट-पाट मचाते हैं। और लड़की जुबान तक नहीं खोलती। सारी क्षमता काले लोगों की दखल में जा रही है। उनकी गोरी मित्र लूसी, पड़ोस के दिहाड़ी-मजदूर, काले पेटुस से समझौता कर लेती है और उसकी बीवी बन जाती है, वर्ना उसका जमी-जमा बेदखल हो जाता। इससे छुटकारे का एक ही उपाय है कि ज़मीन का मोह छोड़कर वह चली जाए। लूसी ऐसा नहीं चाहती। वह भागना नहीं चाहती। जंग करते हुए जीना चाहती है। डर के मारे जड़ से उखड़कर चले जाने में उसे सख्त एतराज है। वह जहाँ है, वहीं बनी रहना चाहती है। एपारथेड के समय, गोरों ने कालों के साथ जो हरकत की, लूसी पर भी काले वही कर रहे हैं और लूसी बर्दाश्त करती जा रही है।

यह उपन्यास मुझे बेतरह परेशान कर गया। दक्षिण अफ्रिका में काले क्या इसी तरह की अराजकता फैला रहे हैं? वे लोग तो अभी भी नियंतित हैं। अभी उसी दिन चंद गोरी पुलिस ने हिंम्न कुत्ते लगाकर एक काले शख्स की बोटी-बोटी नुचवा डाली। असल में लेखकों को पत्रकारों की तरह चालू खबरों पर नज़र रखना होगी और उस पर कहानी भी लिखी जाए, ऐसा भी संभव नहीं है! कोएत्ज़ी ने दूसरी तरफ भी नज़र डाली है। मंडेला के ज़माने में काले-गोरे का जो भेद दूर नहीं हुआ। अभी भी मंज़िल तक पहुँचने में, काफी लंबी राह बाकी है, उन्होंने यह भी समझाने की कोशिश की है।

इन सबके बावजूद, मैं तो यही कहूँगी कि कोएत्ज़ी किसी नीति कथा की ओर नहीं गए; लूसी का छात्रा-संगम भी पाठकों को क्षुब्ध नहीं करता। ऐसा कहीं भी नहीं लगता कि कोएत्ज़ी यह उपदेश दे रहे हैं-'यह अन्याय कर्म है, यह मत करो।' लूसी के असम्मान का हवाला देते हुए भी कोएत्जी ने यह नहीं कहना चाहा है कि जैसा किया, वैसा भोगो।

जीवन, जीवन की तरह बहता रहा। उनकी आँखों के सामने जीवन का गेर-पोर खुलता रहा। उन्होंने व्यक्तिगत विरोध देखा, घृणा, छोटा-मोटा प्रतिशोध भी देखा। धर्म, वर्ण, गोष्ठी, धन वगैरह केवल उपलक्ष्य मात्र होता है। इंसान के अंदर एक नष्ट इंसान वास करता है और वह नष्ट इंसान हर पल अपने धारदार दाँत-नाखून चमकाते हुए, दूसरों की बोटी-बोटी नोच डालने को आतुर रहता है। जब वह किसी को नहीं पाता, तो खुद अपने को ही चीर-फाड़ डालता है। ऐसे लोगों के जीवन में डकिन्स का सौंदर्य नहीं बसता इन सब जिंदगियों के लिए सीने में ज़रा-जरा करके दर्द जमता रहता है। ढेरों दर्द जमा रहता है।

दर्द एंजेला के लिए भी जमा है। फ्रैंक मैककोट की माँ! फ्रैंक ने 'एंजेलास ऐशेज़' में बचपन की कथा लिखी है और 'टीज़' में जवानी की कहानी लिखी है। दरिद्र आइरिश परिवार का बेटा, फ्रैंक, लिपरिक की एक बस्ती में रहता है! माँ साल-दर साल बच्चे पैदा करती जा रही है। पिता बेकार है। उसके पास नौकरी नहीं है। कभी-कभार थोड़ा-बहुत काम करते हैं, तो कमाई के वे रुपए दारू में ही उड़ा देते है। दारू के नशे में टुन्न होकर, 'आयरलैंड की खातिर लुटा दूँगा जीवन-'गाते-गाते, रात गए घर लौटते हैं। दारूबाज पिता काम करने के लिए लंदन चले जाते हैं? जाते-जाते कह जाते हैं कि हर महीने वे रुपए भेजते रहेंगे। वही पिता रुपए-पैसे भेजने की बात तो छोड़ें, दुवारा घर भी नहीं लौटते। लंदन में भी जो रोजगार करते हैं, दारू में उड़ा देते हैं। इधर माँ अपने छः-छः बच्चों के साथ फाके करती हुई, दिन गुज़ार रही है। बच्चे भी पट्-पट् दम तोड़ते रहे। आखिर में तीन बेटे बच रहते हैं। पढ़ाई-लिखाई छोड़कर, फ्रैंक कोयला चुनने के काम में लग जाते हैं। कोयला चुनते-बीनते आँखें प्रायः जाने-जाने की हालत में पहुँच जाती हैं। एंजेला बेटे का वह काम छुड़ाकर, अपने साथ ले आती है। खुद चोरी-छिपे भीख माँगती है और बच्चों के पेट में कुछेक दाने डालती है। ऐसी तो टूटी-फूटी बस्ती! उन्हें वहाँ से भी उठ जाना पड़ा। उन्हें अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ शरण लेना पड़ी। वहाँ एंजेला को हर रात उस रिश्तेदार मर्द का बिस्तर गर्म करना पड़ता है। ये सारे त्याग वह अपने तीनों बच्चों को जिलाए रखने के लिए करती है! फ्रैंक से यह सब बर्दाश्त नहीं होता। वे घर छोड़कर निकल पड़ते हैं। स्कूल छोड़कर, उन्होंने डाकिए की नौकरी कर ली। वह नौकरी करते-करते ही अचानक उनके हाथों ढेर सारे रुपए आ पड़े। चोरी के रुपए! वे रुपए समेटकर, अपना जीवन बदलने के लिए न्यूयॉर्क चले आते हैं। न्यूयॉर्क में भी जिंदगी क्या सहज हो पाती है? जहाज से उतरते ही वे एक समकामी पादरी के हत्थे चढ़ जाते हैं। फ्रैंक के लिए जीने का संघर्ष फिर शुरू होता है। वे किसी होटल के झाड्दार के रूप में जिंदगी शुरू करते हैं। दूसरे महायुद्ध के दौरान वे अमेरिका की फौज में जा भिड़े और जर्मनी चले गए। वहाँ उन्हें चिट्ठी-पत्तर टाइप करने का काम मिल गया। बहरहाल, वे उसी में अच्छी-भली जिंदगी जीने लगे, लेकिन जाने किस क्षुद्र प्राणी के साथ मिलकर, जाने कौन-सा गलीज काम कर बैठे और उस गुनाह में उनकी नौकरी चली जाती है। उन्हें कुत्तों को खाना खिलाने की जिम्मेदारी मिली। अब झुंड भर हिंन कुत्तों के साथ फ्रैंक की जिंदगी शुरू होती है। युद्ध जब समाप्त हो गया, तो फौजी घर वापसी की राह में किसी भी लड़की पर निगाह पड़ते ही, गाड़ी रोककर हहाते-शोर मचाते उतर पड़ते, झोंप-झंखाड़, जंगल में लड़कियों को ले जाकर, अपनी ज़रूरत मिटाते रहे। उस वक्त लड़की तो क्या, उन फौजियों की भूख इतनी तीखी थी कि गाय-बकरी भेड़ भी मिल जाती, तो उसे धर दबोचते थे। एक पैकेट सिगरेट के बदले, फ्रैंक ने भी एक मरगिल्ली जिप्सी लड़की को पकड़ लिया और अपनी भूख मिटाई। न्यूयॉर्क लौटने के बाद, उनकी जिंदगी काफी कुछ बदल जाती है। दिन में वे कुली-मजूर का काम करते और रात जाग-जागकर लिखाई-पढ़ाई करते। उनके मन की गहराइयों में विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने का गोपन सपना पलता रहा। हाईस्कूल पास किए बिना ही वे विश्वविद्यालय में भर्ती हो गए। आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई; मेहनत की फसल घर में आई। इम्तहान पास करके वे स्कूल टीचर बन गए। सन् साठ के दशक में, हिप्पी लोग की जयजयकार मची थी; नियम-नीति के बदन पर लड़के-लड़कियाँ वाकायदा पेशाब कर रहे थे और बेचारे मास्टर हर क्लास में नेस्तनाबूद होते रहे।

उनके दोनों छोटे भाई भी लिमरिक छोडकर न्ययॉर्क चले आए। उधर माँ एंजेला लिमरिक में अकेली पड़ी रही। अभाव तो खैर था ही! ऊपर से भयावह अकेलेपन ने धर दबोचा! काफी सालों बाद वे बेटों के साथ बड़े दिन का जश्न मनाने न्यूयॉर्क आती हैं। बड़ा दिन गुज़र जाता है, एंजेला लिमरिक लौटने का नाम नहीं लेतीं। वे चाहती हैं कि वे किसी घर में अपने बेटों के साथ सुख-चैन की जिंदगी गुजारें। इतने अर्से बाद सुखद ज़िंदगी! लेकिन बेटे ब्याह-शादी करके अपने-अपने व्यक्तिगत जीवन में व्यस्त हो चुके थे। एंजेला को कुछ वक्त देने की किसी के भी पास फुर्सत नहीं थी। किसी के यहाँ, एंजेला को जगह देने के लिए किसी के भी पास अतिरिक्त कमरा नहीं था। अपने सारे सपने दरकिनार करके, उन्हें अकेले ही एक घर किराए पर लेना पड़ा और जुआ खेलकर, अपनी जिंदगी चलाती रहीं। अकेलेपन से उनका रोजमर्रा का साथ था। ऐसे में अचानक उन्हें अपने पति का एक ख़त मिला। पति ने लिखा था कि शराब का नशा अब नहीं रहा। कहा जाए कि शराब को अब वे हाथ नहीं लगाते। अगर एक बार...एंजेला राजी हों, तो...। एंजेला भी एक बार अपने पति को देखना चाहती थीं। ज़िंदगी के आखिरी दिनों में, थोड़े से वक्त के लिए ही सही, उन्हें भी पति का साथ पाने का बेहद चाव हो आया। लेकिन एंजेला की किस्मत में और कुछ भले हो, सुख कतई नहीं था। पति आए तो सही, लेकिन हर रात लापता हो जाते। नाली में पड़े, नशे में बेसुध पति को उठाकर, आधी रात को घर लाना पड़ता था। एंजेला को काफी हिसाब-किताब से जीवन चलाना पड़ता था। पति के लिए शराब के पैसे जुटाना, उनके लिए संभव नहीं था। पति को जिंदगी भर के लिए अलविदा कहकर, उन्होंने सिगरेट फँक-फंककर अपने फेफडे नष्ट कर डाले। जिंदगी का बोझ ढोने में असफल होकर एक दिन गहरे अभिमान के साथ चली गईं। फ्रैंक, उनका लाड़ला सपूत, द मास्टर साहब, एंजेला का भस्म लिमरिक में छितरा आए। उस किताब में इतना-इतना दुःख है कि पाठक रो पड़ते हैं। साथ ही हँसते भी हैं। फ्रैंक के बयान में अद्भुत हँसी भी है। यह लेखक अपने पाठकों को हर पन्ने पर रुलाता है और खुद अपने टूटे दाँत, फूटी आँख और फटे जूतों में हँसते रहे। पाठक भी आँखों के आँसू पोंछते-पोंछते हँस देता है। ऐसा खूबसूरत बयान इससे पहले, इतने गहरे दुःख की कहानी, मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी। इसके अलावा, यह कोई रची-गढ़ी कहानी नहीं है। लेखक की अपनी जीवन-कथा है। पिता के रोग ने बाद में लेखक को भी धर दबोचा। लेखक भी दारूबाज हो जाता है।

टाल्सटॉय का दर्शन न मानें, तो मैं कहूँगी, तमाम सुख अलग-अलग होते हैं। मगर तमाम दुःख एक होता है।

दुनिया के तमाम गरीब-दरिद्र लोगों के दुःख एक होते हैं। कलकत्ता और लिमरिक की बस्ती में, मुझे कोई फर्क नज़र नहीं आता। दरिद्र लोग, चाहे जिस भी देश के हों। एक ही किस्म की दुर्दशा से दो-चार होते हैं, एक ही किस्म के दुःख झेलते हैं। आइरिश एंजेला मैककोर्ट और बंगाली रहीमा खातून या प्रतिमा पाल का दुःख बिल्कुल भी अलग नहीं है।

फ्रैंक मैककोर्ट! कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि इस वक्त वे क्या कर रहे होंगे। ज़रूर वे इस वक्त ग्रीनिच विलेज के व्हाइट हॉर्स टैवन में बैठे, दारू का मज़ा ले रहे होंगे। देर रात घर लौटते होंगे अपने पिता की तरह लड़खड़ाते-डगमगाते। लेकिन गनीमत यह है कि घर में एंजेला जैसी फाके करने या समझौता करने के लिए कोई दुःखवती नहीं है।

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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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